छंद सलिला:
हरिगीतिकाछंद
संजीव
*
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छंद लक्षण: जाति यौगिक, प्रति पद २८ मात्रा, यति १६-१२ , पदांत गुरु लघु गुरु, चौकल में जगण वर्जित, पदांत रगण मधुर।
सूत्र : हरिगीतिका (११२१२) ४ बार
बहर : मुस्तफअलन (२१११२ या २१११११) ४ बार (आदि गुरु) या मुतफायलुन (११२१२ या ११२१११) ४ बार (आदि २ गुरु) । उर्दू बहर 'रजज' की तक्तीह मुस तफ़ इलुन / मुस तफ़ इलुन मुस / तफ़ इलुन / मुस तफ़ इलुन [2212 / 2212 2 / 212 / 2122] हरिगीतिका से मिलती-जुलती है। यहाँ १६वीं मात्रा पर यति बिठानी है, तथा अंतिम इलुन को हिन्दी वर्णों के अनुसार लघु गुरु माना जाना है। यहाँ अंतिम लघु गुरु को छोड़ कर शेष स्थान पर २ मात्रा भार है न कि गुरु वर्ण। इस छंद की लय कुछ इस तरह से हो सकती है :-
१. लल-ला-ल-ला / लल-ला-ल-ला लल, / ला-ल-ला / लल-ला-ल-ला (पहचानले x ४ )
२. ला-ला-ल-ला / ला-ला-ल-ला ला, / ला-ल-ला / ला-ला-ल-ला (आजाइए x ४)
३. ला-ला-ल-ल ल / ला-ला-ल-ल ल ला, / ला-ल-ल ल / लल-ला-ल-ल ल (आ जा सनम x ४)
४. ल ल-ला-ल-ल ल / ल ल-ला-ल-ल ल ल ल, / ला-ल-ल ल / ल ल-ला-ल-ल ल(कविता कलम x ४)
टीप : पाँचवी मात्रा लघु होना अत्यावश्यक, यथासंभव बारहवीं, उन्नीसवीं तथा छब्बीसवीं मात्रा लघु होना चाहिए।
लक्षण छंद:
'हरिगीतिका' शुभ सूत्र मात्रिक, चार हों दुहराव भी
लघु पाँचवी रख सोलवीं फिर, बारवीं यति हो सखी
उदाहरण:
१. हरिगीतिका रचिए सदा, हरि / नाम भी जरिए सदा
सुख में जपें प्रभु नाम तो, दुःख / आपसे रहता जुदा
मन में नहीं डर हो कभी, यदि / आप के तब हों खुदा
प्रभु भी रहें निज भक्त के, संग / आपदा हर सर्वदा
२. कुछ तो कहो चुप क्यों रहो?, शिक/वे भुला सुख भी गहो
गत तो गया उसको भुला, अप/ने नये सपने तहो
गत तो गया उसको भुला, अप/ने नये सपने तहो
मन जो कहे वह ही नहीं, तन / जो चहे वह भी नहीं
करना वही मस्तिष्क को लग/ता रहा जब जो सही
कुछ तो मिला मत हो गिला, कुछ / खो गया तज जो गया
सँग था नहीं कुछ, है नहीं कुछ, हो / नहीं तब क्यों गिला?
३. हममें छिपा शिशु जो नहीं उस/को कभी हम दें भुला
जगता रहे यह हो नहीं, उस/को अकारण दें सुला
वह दे हमें खुशियाँ सदा, हम / भी उसे कुछ दें ख़ुशी
हममें बसा वह है खुदा, वह / भी कहे हम हैं खुदी वह दे हमें खुशियाँ सदा, हम / भी उसे कुछ दें ख़ुशी
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भिखारीदास ने छन्दार्णव में गीतिका नाम से 'चार सगुण धुज गीतिका' कहकर हरिगीतिका का वर्णन किया है।
छंद विधान:
० १. हरिगीतिका २८ मात्रा का ४ समपाद मात्रिक छंद है।
० २. हरिगीतिका में हर पद के अंत में लघु-गुरु ( छब्बीसवी लघु, सत्ताइसवी-अट्ठाइसवी गुरु ) अनिवार्य है।
० ३. हरिगीतिका में १६-१२ या १४-१४ पर यति का प्रावधान है।
० ४. सामान्यतः दो-दो पदों में समान तुक होती है किन्तु चारों पदों में समान तुक, प्रथम-तृतीय-चतुर्थ पद में समान तुक भी हरिगीतिका में देखी गयी है।
०५. काव्य प्रभाकरकार जगन्नाथ प्रसाद 'भानु' के अनुसार हर सतकल अर्थात चरण में (11212) पाँचवी, अर्थात पद में पाँचवीं, बारहवीं, उन्नीसवीं तथा छब्बीसवीं मात्रा लघु होना चाहिए। कविगण लघु को आगे-पीछे के अक्षर से मिलाकर दीर्घ करने की तथा हर सातवीं मात्रा के पश्चात् चरण पूर्ण होने के स्थान पर पूर्व के चरण का अंतिम दीर्घ अक्षर अगले चरण के पहले अक्षर या अधिक अक्षरों से संयुक्त होकर शब्द में प्रयोग करने की छूट लेते रहे हैं किन्तु चतुर्थ चरण की पाँचवी मात्रा का लघु होना आवश्यक है।
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मानस में अनेक प्रसंगों में यह छंद प्रयुक्त हुआ है. देखिये:
हरिगीतिका = ११ २१२ x ४ = २८
श्री रामचन्द्र कृपालु भज मन हरण भव भय दारुणं = २८
नव कंज लोचन कंज मुख कर कंज पद कंजारुणं = २८
कंदर्प अगणित अमित छवि नव नील नीरज सुंदरं = २८
पट पीत मानहु तड़ित रूचि शुचि नवमी जनकसुता वरं = २९
अंतिम पंक्ति में नवमी में 'मी' का उच्चारण 'मि' है. गोस्वामी जी ने दो लघु क्को गुरु और गुरु को दो लघु करने कि छूट इस प्रकार ली है कि लय भंग न हो. अंतिम पंक्ति में दीर्घ 'मी' का लघु 'मि' उच्चारण अपवाद है, खटकता नहीं है किन्तु हम-आप ऐसा करें तो यह पिंगल की दृष्टि से दोष कहा जायेगा।
मानस से ही विविध प्रसंगों में प्रयुक्त कुछ अन्य पंक्तियाँ:
दुंदुभि जय धुनि वेद धुनि नभ, नगर कौतूहल भले = २७
यहाँ दुंदुभि का उच्चारण दुंदुभी होता है तब २८ मात्राएँ होती हैं.
*
जननिहि बहुरि मिलि चलीं उचित असीस सब काहू दई = २८
यहाँ यति लीक से हटकर है, 'चलीं' पर अटकाव अनुभव होता है,'
*
करुना निधा/न सुजान सी/ल सनेह जा/नत रावरो = २८ (यति १५ पर)
*
इहि के ह्रदय बस जानकी जानकी उर मम बास है = २८ (यति १६ पर)
*
केशवदास भी हरिगीतिका में सिद्धहस्त रहे हैं:
तब तासु छबि मद छक्यो अर्जुन हत्यो ऋषि जमदग्नि जू = ३० (यति १७ पर)
यहाँ 'छक्यो' तथा 'हत्यों' को दो १ लघु + २ दीर्घ मात्रा की समयावधि में छ+क्यो तथा ह+त्यो उच्चारित करना होगा।
*
अति किधौं सरित सुदेस मेरी करी दिवि खेलत भई = २८ (यति १६ मात्रा पर)
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भुँइ चलत लटपट गिरत पुनि उठि हँसत खिलखिल रघुपती = २८ ('रघुपति' को 'रघुपती' करने पर २८ मात्राएँ)
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हरिगीतिका = ११ २१२ x ४ = २८
श्री रामचन्द्र कृपालु भज मन हरण भव भय दारुणं = २८
नव कंज लोचन कंज मुख कर कंज पद कंजारुणं = २८
कंदर्प अगणित अमित छवि नव नील नीरज सुंदरं = २८
पट पीत मानहु तड़ित रूचि शुचि नवमी जनकसुता वरं = २९
अंतिम पंक्ति में नवमी में 'मी' का उच्चारण 'मि' है. गोस्वामी जी ने दो लघु क्को गुरु और गुरु को दो लघु करने कि छूट इस प्रकार ली है कि लय भंग न हो. अंतिम पंक्ति में दीर्घ 'मी' का लघु 'मि' उच्चारण अपवाद है, खटकता नहीं है किन्तु हम-आप ऐसा करें तो यह पिंगल की दृष्टि से दोष कहा जायेगा।
मानस से ही विविध प्रसंगों में प्रयुक्त कुछ अन्य पंक्तियाँ:
दुंदुभि जय धुनि वेद धुनि नभ, नगर कौतूहल भले = २७
यहाँ दुंदुभि का उच्चारण दुंदुभी होता है तब २८ मात्राएँ होती हैं.
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जननिहि बहुरि मिलि चलीं उचित असीस सब काहू दई = २८
यहाँ यति लीक से हटकर है, 'चलीं' पर अटकाव अनुभव होता है,'
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करुना निधा/न सुजान सी/ल सनेह जा/नत रावरो = २८ (यति १५ पर)
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इहि के ह्रदय बस जानकी जानकी उर मम बास है = २८ (यति १६ पर)
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केशवदास भी हरिगीतिका में सिद्धहस्त रहे हैं:
तब तासु छबि मद छक्यो अर्जुन हत्यो ऋषि जमदग्नि जू = ३० (यति १७ पर)
यहाँ 'छक्यो' तथा 'हत्यों' को दो १ लघु + २ दीर्घ मात्रा की समयावधि में छ+क्यो तथा ह+त्यो उच्चारित करना होगा।
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अति किधौं सरित सुदेस मेरी करी दिवि खेलत भई = २८ (यति १६ मात्रा पर)
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भुँइ चलत लटपट गिरत पुनि उठि हँसत खिलखिल रघुपती = २८ ('रघुपति' को 'रघुपती' करने पर २८ मात्राएँ)
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उदाहरण:
०१. निज गिरा पावन करन कारन, राम जस तुलसी कह्यो. (रामचरित मानस)(यति १६-१२ पर, ५वी मात्रा दीर्घ, १२ वी, १९ वी, २६ वी मात्राएँ लघु)
०२. दुन्दुभी जय धुनि वेद धुनि, नभ नगर कौतूहल भले. (रामचरित मानस)
(यति १४-१४ पर, ५वी मात्रा दीर्घ, १२ वी, १९ वी, २६ वी मात्राएँ लघु)
०३. अति किधौं सरित सुदेस मेरी, करी दिवि खेलति भली। (रामचंद्रिका)
(यति १६-१२ पर, ५वी-१९ वी मात्रा दीर्घ, १२ वी, २६ वी मात्राएँ लघु)
०४. जननिहि बहुरि मिलि चलीं उचित असीस सब काहू दई। (रामचरित मानस)
(यति १६-१२ पर, १२ वी, २६ वी मात्राएँ दीर्घ, ५ वी, १९ वी मात्राएँ लघु)
०५. करुना निधान सुजान सील सनेह जानत रावरो। (रामचरित मानस)
(यति १६-१२ पर, ५ वी, १२ वी, १९ वी, २६ वी मात्राएँ लघु)
०६. इहि के ह्रदय बस जानकी जानकी उर मम बास है। (रामचरित मानस)
(यति १६-१२ पर, ५ वी, १२ वी, २६ वी मात्राएँ लघु, १९ वी मात्रा दीर्घ)
०७. तब तासु छबि मद छक्यो अर्जुन हत्यो ऋषि जमदग्नि जू।(रामचरित मानस)
(यति १६-१२ पर, ५ वी, २६ वी मात्राएँ लघु, १२ वी, १९ वी मात्राएँ दीर्घ)
०८. तब तासु छबि मद छक्यो अर्जुन हत्यो ऋषि जमदग्नि जू।(रामचंद्रिका)
(यति १६-१२ पर, ५ वी, २६ वी मात्राएँ लघु, १२ वी, १९ वी मात्राएँ दीर्घ)
०९. जिसको न निज / गौरव तथा / निज देश का / अभिमान है।
वह नर नहीं / नर-पशु निरा / है और मृतक समान है। (मैथिलीशरण गुप्त )
(यति १६-१२ पर, ५ वी, १२ वी, १९ वी, २६ वी मात्राएँ लघु)
१०. जब ज्ञान दें / गुरु तभी नर/ निज स्वार्थ से/ मुँह मोड़ता।
तब आत्म को / परमात्म से / आध्यात्म भी / है जोड़ता।।(संजीव 'सलिल')
अभिनव प्रयोग:
हरिगीतिका मुक्तक:
संजीव 'सलिल'
पथ कर वरण, धर कर चरण, थक मत चला, चल सफल हो.
श्रम-स्वेद अपना नित बहा कर, नव सृजन की फसल बो..
संचय न तेरा साध्य, कर संचय न मन की शांति खो-
निर्मल रहे चादर, मलिन हो तो 'सलिल' चुपचाप धो..
*
करता नहीं, यदि देश-भाषा-धर्म का, सम्मान तू.
धन-सम्पदा, पर कर रहा, नाहक अगर, अभिमान तू..
अभिशाप जीवन बने तेरा, खो रहा वरदान तू-
मन से असुर, है तू भले, ही जन्म से इंसान तू..
*
करनी रही, जैसी मिले, परिणाम वैसा ही सदा.
कर लोभ तूने ही बुलाई शीश अपने आपदा..
संयम-नियम, सुविचार से ही शांति मिलती है 'सलिल'-
निस्वार्थ करते प्रेम जो, पाते वही श्री-संपदा..
*
धन तो नहीं, आराध्य साधन मात्र है, सुख-शांति का.
अति भोग सत्ता लोभ से, हो नाश पथ तज भ्रान्ति का..
संयम-नियम, श्रम-त्याग वर, संतोष कर, चलते रहो-
तन तो नहीं, है परम सत्ता उपकरण, शुचि क्रांति का..
*
करवट बदल ऋतुराज जागा विहँस अगवानी करो.
मत वृक्ष काटो, खोद पर्वत, नहीं मनमानी करो..
ओजोन है क्षतिग्रस्त पौधे लगा हरियाली करो.
पर्यावरण दूषित सुधारो अब न नादानी करो..
*
हरिगीतिका मुक्तक:
संजीव 'सलिल'
पथ कर वरण, धर कर चरण, थक मत चला, चल सफल हो.
श्रम-स्वेद अपना नित बहा कर, नव सृजन की फसल बो..
संचय न तेरा साध्य, कर संचय न मन की शांति खो-
निर्मल रहे चादर, मलिन हो तो 'सलिल' चुपचाप धो..
*
करता नहीं, यदि देश-भाषा-धर्म का, सम्मान तू.
धन-सम्पदा, पर कर रहा, नाहक अगर, अभिमान तू..
अभिशाप जीवन बने तेरा, खो रहा वरदान तू-
मन से असुर, है तू भले, ही जन्म से इंसान तू..
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करनी रही, जैसी मिले, परिणाम वैसा ही सदा.
कर लोभ तूने ही बुलाई शीश अपने आपदा..
संयम-नियम, सुविचार से ही शांति मिलती है 'सलिल'-
निस्वार्थ करते प्रेम जो, पाते वही श्री-संपदा..
*
धन तो नहीं, आराध्य साधन मात्र है, सुख-शांति का.
अति भोग सत्ता लोभ से, हो नाश पथ तज भ्रान्ति का..
संयम-नियम, श्रम-त्याग वर, संतोष कर, चलते रहो-
तन तो नहीं, है परम सत्ता उपकरण, शुचि क्रांति का..
*
करवट बदल ऋतुराज जागा विहँस अगवानी करो.
मत वृक्ष काटो, खोद पर्वत, नहीं मनमानी करो..
ओजोन है क्षतिग्रस्त पौधे लगा हरियाली करो.
पर्यावरण दूषित सुधारो अब न नादानी करो..
*
कण जोड़ती, तृण तोड़ती, पथ मोड़ती, अभियांत्रिकी
बढ़ती चले, चढ़ती चले, गढ़ती चले, अभियांत्रिकी
उगती रहे, पलती रहे, खिलती रहे, अभियांत्रिकी
रचती रहे, बसती रहे, सजती रहे, अभियांत्रिकी
*
*
नव रीत भी, नव गीत भी, संगीत भी, तकनीक है
कुछ हार है, कुछ प्यार है, कुछ जीत भी, तकनीक है
गणना नयी, रचना नयी, अव्यतीत भी, तकनीक है
श्रम मंत्र है, नव यंत्र है, सुपुनीत भी तकनीक है
*
*
यह देश भारत वर्ष है, इस पर हमें अभिमान है
कर दें सभी मिल देश का, निर्माण यह अभियान है
गुणयुक्त हों अभियांत्रिकी, श्रम-कोशिशों का गान है
परियोजना त्रुटिमुक्त हो, दुनिया कहे प्रतिमान है
*
*
हरिगीतिका गीत:
पर्व नव सद्भाव के
पर्व नव सद्भाव के
संजीव 'सलिल'
*
हैं आ गये राखी कजलियाँ, पर्व नव सद्भाव के.
सन्देश देते हैं न पकड़ें, पंथ हम अलगाव के..
भाई-बहिन सा नेह-निर्मल, पालकर आगे बढ़ें.
सत-शिव करें मांगल्य सुंदर, लक्ष्य सीढ़ी पर चढ़ें..थाती पुरातन, शुभ सनातन, यह हमारा गर्व है.
हैं जानते वह व्याप्त सबमें, प्रिय उसे जग सर्व है..
मन मोर नाचे देख बिजुरी और बरखा मेघ की
कब बंधु आए? सोच बहना, मगन प्रमुदित हो रही
धरती हरे कपड़े पहन कर, लग रही है षोडशी.
सलिला नवोढ़ा नारियों सी, है कथा नव मोद की..
शालीनता तट में रहें सब, भंग ना मर्याद हो.
स्वातंत्र्य उच्छ्रंखल न हो यह, मर्म सबको याद हो..
बंधन रहे कुछ तो, तभी हम - गति-दिशा गह पायेंगे.
निर्बंध होकर गति-दिशा बिन, शून्य में खो जायेंगे..
बंधन अप्रिय लगता हमेशा, अशुभ हो हरदम नहीं.
रक्षा करे बंधन 'सलिल' तो, त्याज्य होगा क्यों कहीं?
यह दृष्टि भारत पा सका तब, जगद्गुरु कहला सका.
निज शत्रु दिल संयम-नियम से, विजय कर दहला सका..
इतिहास से ले सबक बंधन, में बंधें हम एक हों.
संकल्पकर इतिहास रच दें, कोशिशें शुभ नेक हों..
मात्रा गणना :-
४. गणपति वन्दना
वन्दहुँ विनायक, विधि-विधायक, ऋद्धि-सिद्धि प्रदायकं।
गजकर्ण, लम्बोदर, गजानन, वक्रतुंड, सुनायकं।।
श्री एकदंत, विकट, उमासुत, भालचन्द्र भजामिहं।
विघ्नेश, सुख-लाभेश, गणपति, श्री गणेश नमामिहं ।। - नवीन सी. चतुर्वेदी
५. सरस्वती वन्दना
ज्योतिर्मयी! वागीश्वरी! हे - शारदे! धी-दायिनी !
पद्मासनी, शुचि, वेद-वीणा - धारिणी! मृदुहासिनी !!
स्वर-शब्द ज्ञान प्रदायिनी! माँ - भगवती! सुखदायिनी !
शत शत नमन वंदन वरदसुत, मान वर्धिनि! मानिनी !! - राजेन्द्र स्वर्णकार
६. सामयिक
सदियों पुरानी सभ्यता को, बीस बार टटोलिए।
किसको मिली बैठे-बिठाये, क़ामयाबी, बोलिए।।
है वक़्त का यह ही तक़ाज़ा, ध्यान से सुन लीजिए।
मंज़िल खड़ी है सामने ही, हौसला तो कीजिए।१।
चींटी कभी आराम करती, आपने देखी कहीं।
कोशिश-ज़दा रहती हमेशा, हारती मकड़ी नहीं।।
सामान्य दिन का मामला हो, या कि फिर हो आपदा।
जलचर, गगनचर कर्म कर के, पेट भरते हैं सदा।२।
गुरुग्रंथ, गीता, बाइबिल, क़ुरआन, रामायण पढ़ी।
प्रारब्ध सबको मान्य है, पर - कर्म की महिमा बड़ी।
ऋगवेद की अनुपम ऋचाओं में इसी का ज़िक्र है।
संसार उस के साथ है, जिस को समय की फ़िक्र है।३। - नवीन सी. चतुर्वेदी
७. रक्षाबंधन
सावन सुहावन आज पूरन पूनमी भिनसार है,
भैया बहन खुश हैं कि जैसे मिल गया संसार है|
*
८. दीपावली
भाई बहन के पाँव छूकर दे रहा उपहार है,
बहना अनुज के बाँध राखी हो रही बलिहार है|
टीका मनोहर भाल पर शुभ मंगलम त्यौहार है
आलोक भाई की कलाई पर बहन का प्यार है ||
*
सावन पुरातन प्रेम पुनि-पुनि, सावनी बौछार है,
रक्षा शपथ ले करके भाई, सर्वदा तैयार है|
यह सूत्र बंधन तो अपरिमित, नेह का भण्डार है,
आलोक भाई की कलाई पर बहन का प्यार है ||
४
बहना समझना मत कभी यह बन्धु कुछ लाचार है,
मैंने दिया है नेग प्राणों का कहो स्वीकार है |
राखी दिलाती याद पावन, प्रेम मय संसार है,
आलोक भाई की कलाई पर बहन का प्यार है ||
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बिन दीप तम से त्राण जगका, हो नहीं पाता कभी.
बिन गीत मन से त्रास गमका, खो नहीं पाता कभी..
बिन सीप मोती कहाँ मिलता, खोजकर हम हारते-
बिन स्वेद-सीकर कृषक फसलें, बो नहीं पाता कभी..
*
हर दीपकी, हर ज्योतिकी, उजियारकी पहचान हूँ.
हर प्रीतका, हर गीतका, मनमीत का अरमान हूँ..
मैं भोरका उन्वान हूँ, मैं सांझ का प्रतिदान हूँ.
मैं अधर की मुस्कान हूँ, मैं हृदय का मेहमान हूँ..
*
यह छंद हर प्रसंग परऔर हर रस की काव्य रचना हेतु उपयुक्त है.
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*
हैं आ गये राखी कजलियाँ, पर्व नव सद्भाव के.
सन्देश देते हैं न पकड़ें, पंथ हम अलगाव के..
भाई-बहिन सा नेह-निर्मल, पालकर आगे बढ़ें.
सत-शिव करें मांगल्य सुंदर, लक्ष्य सीढ़ी पर चढ़ें..थाती पुरातन, शुभ सनातन, यह हमारा गर्व है.
हैं जानते वह व्याप्त सबमें, प्रिय उसे जग सर्व है..
मन मोर नाचे देख बिजुरी और बरखा मेघ की
कब बंधु आए? सोच बहना, मगन प्रमुदित हो रही
धरती हरे कपड़े पहन कर, लग रही है षोडशी.
सलिला नवोढ़ा नारियों सी, है कथा नव मोद की..
शालीनता तट में रहें सब, भंग ना मर्याद हो.
स्वातंत्र्य उच्छ्रंखल न हो यह, मर्म सबको याद हो..
बंधन रहे कुछ तो, तभी हम - गति-दिशा गह पायेंगे.
निर्बंध होकर गति-दिशा बिन, शून्य में खो जायेंगे..
बंधन अप्रिय लगता हमेशा, अशुभ हो हरदम नहीं.
रक्षा करे बंधन 'सलिल' तो, त्याज्य होगा क्यों कहीं?
यह दृष्टि भारत पा सका तब, जगद्गुरु कहला सका.
निज शत्रु दिल संयम-नियम से, विजय कर दहला सका..
इतिहास से ले सबक बंधन, में बंधें हम एक हों.
संकल्पकर इतिहास रच दें, कोशिशें शुभ नेक हों..
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उदाहरण:
१.
श्री राम चन्द्र कृपालु भज मन हरण भव भय दारुणं।
नव कंज लोचन कंज मुख कर कंज पद कंजारुणं ।।
कंदर्प अगणित अमित छवि नव-नील नीरद सुन्दरं ।
पट पीत मानहु तड़ित रूचि शुचि नौमि जनकसुता वरं।। तुलसी कृत रामचरित मानस से.
[ऊपर की पंक्ति में 'चंद्र' का 'द्र' और 'कृपालु' का 'कृ' संयुक्त अक्षर की तरह एक मात्रिक गिने गए हैं]
[यह स्तुति यू ट्यूब पर भी उपलब्ध है]मात्रा गणना :-
श्री राम चन्द्र कृपालु भज मन
२ २१ २१ १२१ ११ ११ = १६ मात्रा और यति
हरण भव भय दारुणं
१११ ११ ११ २१२ = १२ मात्रा, अंत में लघु गुरु
नव कंज लोचन कंज मुख कर
११ २१ २११ २१ ११ ११ = १६ मात्रा और यति
कंज पद कंजारुणं
२१ ११ २२१२ = १२ मात्रा, अंत में लघु गुरु
कंदर्प अगणित अमित छवि नव
२२१ ११११ १११ ११ ११ = १६ मात्रा और यति
नील नीरद सुन्दरं
२१ २११ २१२ = १२ मात्रा, अंत में लघु गुरु
पट पीत मानहु तड़ित रूचि शुचि
११ २१ २११ १११ ११ ११ = १६ मात्रा और यति
नौमि जनकसुता वरं
२१ ११११२ १२ = १२ मात्र, अंत में लघु गुरु
२.
कनक कोट बिचित्र मनि कृत सुंदरायतना घना।
१२ २२ २ २ २१, २१२ २२१२
चउहट्ट हट्ट सुबट्ट बीथीं चारु पुर बहु बिधि बना।।
२२१२ २२१२ २, २१२ २२१२
गज बाजि खच्चर निकर पदचर रथ बरूथिन्ह को गनै।।
२२१२ २१२२ २, २१२ २२१२
बहुरूप निसिचर जूथ अतिबल सेन बरनत नहिं बनै।।
२२१२ २२१२ २, २१२२ २१२
बन बाग उपबन बाटिका सर कूप बापीं सोहहीं।
२२१२ २२१२ २, २१२ २२१२
नर नाग सुर गंधर्ब कन्या रूप मुनि मन मोहहीं।।
२२१२ २२१२ २, २१२ २२१२
कहुँ माल देह बिसाल सैल समान अतिबल गर्जहीं।
२२१२ २२१२ २, २१२ २२१२
नाना अखारेन्ह भिरहिं बहु बिधि एक एकन्ह तर्जहीं।।
२२१२ २१२२ २, २१२ २२१२
करि जतन भट कोटिन्ह बिकट तन नगर चहुँ दिसि रच्छहीं।
२१२२ २२१२ २, १२२ २२१२
कहुँ महिष मानषु धेनु खर अज खल निसाचर भच्छहीं।।
२१२२ २२१२ २, २१२ २२१२
एहि लागि तुलसीदास इन्ह की कथा कछु एक है कही।
२२१२ २२१२ २, १२२ २२१२
रघुबीर सर तीरथ सरीरन्हि त्यागि गति पैहहिं सही।।
२२१२ २२१२ २, २१२ २२१२
उक्त छंद रामचरितमानस के सुंदरकांड से हैं। इन छंदों में बहुधा २२१२ का मात्राक्रम है, किंतु यह आवश्यक नहीं है। यह क्रम २१२२, १२२२ या २२२१ भी हो सकता है मगर ऐसा करने पर लय बाधित होती है। प्रवाह हेतु २१२२ या २२१२ ही उपयुक्त। हरिगीतिका छंद को (२+३+२) क्ष ४ के रूप में भी लिखा जा सकता है। ३ के स्थान पर १-२ या २-१ ले सकते हैं। - धर्मेन्द्र कुमार सिंह 'सज्जन'
२.१२ २२ २ २ २१, २१२ २२१२
चउहट्ट हट्ट सुबट्ट बीथीं चारु पुर बहु बिधि बना।।
२२१२ २२१२ २, २१२ २२१२
गज बाजि खच्चर निकर पदचर रथ बरूथिन्ह को गनै।।
२२१२ २१२२ २, २१२ २२१२
बहुरूप निसिचर जूथ अतिबल सेन बरनत नहिं बनै।।
२२१२ २२१२ २, २१२२ २१२
बन बाग उपबन बाटिका सर कूप बापीं सोहहीं।
२२१२ २२१२ २, २१२ २२१२
नर नाग सुर गंधर्ब कन्या रूप मुनि मन मोहहीं।।
२२१२ २२१२ २, २१२ २२१२
कहुँ माल देह बिसाल सैल समान अतिबल गर्जहीं।
२२१२ २२१२ २, २१२ २२१२
नाना अखारेन्ह भिरहिं बहु बिधि एक एकन्ह तर्जहीं।।
२२१२ २१२२ २, २१२ २२१२
करि जतन भट कोटिन्ह बिकट तन नगर चहुँ दिसि रच्छहीं।
२१२२ २२१२ २, १२२ २२१२
कहुँ महिष मानषु धेनु खर अज खल निसाचर भच्छहीं।।
२१२२ २२१२ २, २१२ २२१२
एहि लागि तुलसीदास इन्ह की कथा कछु एक है कही।
२२१२ २२१२ २, १२२ २२१२
रघुबीर सर तीरथ सरीरन्हि त्यागि गति पैहहिं सही।।
२२१२ २२१२ २, २१२ २२१२
उक्त छंद रामचरितमानस के सुंदरकांड से हैं। इन छंदों में बहुधा २२१२ का मात्राक्रम है, किंतु यह आवश्यक नहीं है। यह क्रम २१२२, १२२२ या २२२१ भी हो सकता है मगर ऐसा करने पर लय बाधित होती है। प्रवाह हेतु २१२२ या २२१२ ही उपयुक्त। हरिगीतिका छंद को (२+३+२) क्ष ४ के रूप में भी लिखा जा सकता है। ३ के स्थान पर १-२ या २-१ ले सकते हैं। - धर्मेन्द्र कुमार सिंह 'सज्जन'
वो वस्त्र कितने सूक्ष्म थे, कर लो कई जिनकी तहें।
शहजादियों के अंग फिर भी झांकते जिनसे रहें ।।
थी वह कला या क्या कि कैसी सूक्ष्म थी अनमोल थी ।
सौ हाथ लम्बे सूत की बस आध रत्ती तोल थी ।। -भारत भारती से
३.
अभिमन्यु-धन के निधन से, कारण हुआ जो मूल है।
[यहाँ 'जयद्रथ' को संधि विच्छेद का प्रयोग तथा उच्चारण कला का इस्तेमाल करते हुए यूँ बोला जाएगा 'जयद्द्रथ'। पुराणों के अनुसार नरकों के विभिन्न प्रकारों में 'रौरव [रौ र व] नरक' बहुत ही भयानक नरक होता है]
इस से हमारे हत हृदय को, हो रहा जो शूल है ।।
उस खल जयद्रथ को जगत में, मृत्यु ही अब सार है ।
उन्मुक्त बस उस के लिए रौ'र'व नरक का द्वार है ।। -जयद्रथ वध से
४. गणपति वन्दना
वन्दहुँ विनायक, विधि-विधायक, ऋद्धि-सिद्धि प्रदायकं।
गजकर्ण, लम्बोदर, गजानन, वक्रतुंड, सुनायकं।।
श्री एकदंत, विकट, उमासुत, भालचन्द्र भजामिहं।
विघ्नेश, सुख-लाभेश, गणपति, श्री गणेश नमामिहं ।। - नवीन सी. चतुर्वेदी
५. सरस्वती वन्दना
ज्योतिर्मयी! वागीश्वरी! हे - शारदे! धी-दायिनी !
पद्मासनी, शुचि, वेद-वीणा - धारिणी! मृदुहासिनी !!
स्वर-शब्द ज्ञान प्रदायिनी! माँ - भगवती! सुखदायिनी !
शत शत नमन वंदन वरदसुत, मान वर्धिनि! मानिनी !! - राजेन्द्र स्वर्णकार
६. सामयिक
सदियों पुरानी सभ्यता को, बीस बार टटोलिए।
किसको मिली बैठे-बिठाये, क़ामयाबी, बोलिए।।
है वक़्त का यह ही तक़ाज़ा, ध्यान से सुन लीजिए।
मंज़िल खड़ी है सामने ही, हौसला तो कीजिए।१।
चींटी कभी आराम करती, आपने देखी कहीं।
कोशिश-ज़दा रहती हमेशा, हारती मकड़ी नहीं।।
सामान्य दिन का मामला हो, या कि फिर हो आपदा।
जलचर, गगनचर कर्म कर के, पेट भरते हैं सदा।२।
गुरुग्रंथ, गीता, बाइबिल, क़ुरआन, रामायण पढ़ी।
प्रारब्ध सबको मान्य है, पर - कर्म की महिमा बड़ी।
ऋगवेद की अनुपम ऋचाओं में इसी का ज़िक्र है।
संसार उस के साथ है, जिस को समय की फ़िक्र है।३। - नवीन सी. चतुर्वेदी
७. रक्षाबंधन
सावन सुहावन आज पूरन पूनमी भिनसार है,
भैया बहन खुश हैं कि जैसे मिल गया संसार है|
राखी सलोना पर्व पावन, मुदित घर परिवार है,
आलोक भाई की कलाई पर बहन का प्यार है ||*
८. दीपावली
भाई बहन के पाँव छूकर दे रहा उपहार है,
बहना अनुज के बाँध राखी हो रही बलिहार है|
टीका मनोहर भाल पर शुभ मंगलम त्यौहार है
आलोक भाई की कलाई पर बहन का प्यार है ||
*
सावन पुरातन प्रेम पुनि-पुनि, सावनी बौछार है,
रक्षा शपथ ले करके भाई, सर्वदा तैयार है|
यह सूत्र बंधन तो अपरिमित, नेह का भण्डार है,
आलोक भाई की कलाई पर बहन का प्यार है ||
४
बहना समझना मत कभी यह बन्धु कुछ लाचार है,
मैंने दिया है नेग प्राणों का कहो स्वीकार है |
राखी दिलाती याद पावन, प्रेम मय संसार है,
आलोक भाई की कलाई पर बहन का प्यार है ||
*
बिन दीप तम से त्राण जगका, हो नहीं पाता कभी.
बिन गीत मन से त्रास गमका, खो नहीं पाता कभी..
बिन सीप मोती कहाँ मिलता, खोजकर हम हारते-
बिन स्वेद-सीकर कृषक फसलें, बो नहीं पाता कभी..
*
हर दीपकी, हर ज्योतिकी, उजियारकी पहचान हूँ.
हर प्रीतका, हर गीतका, मनमीत का अरमान हूँ..
मैं भोरका उन्वान हूँ, मैं सांझ का प्रतिदान हूँ.
मैं अधर की मुस्कान हूँ, मैं हृदय का मेहमान हूँ..
*
यह छंद हर प्रसंग परऔर हर रस की काव्य रचना हेतु उपयुक्त है.
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(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अनुगीत, अरुण, अवतार, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उड़ियाना, उपमान, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, कुकुभ, कज्जल, कामरूप, कामिनीमोहन, काव्य, कीर्ति, कुण्डल, कुडंली, गीता, गीतिका, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, चंद्रायण, छवि, जग, जाया, तांडव, तोमर, त्रिलोकी, दिक्पाल, दीप, दीपकी, दोधक, दृढ़पद, नित, निधि, निश्चल, प्लवंगम्, प्रतिभा, प्रदोष, प्रभाती, प्रेमा, बाला, भव, भानु, मंजुतिलका, मदनअवतार, मदनाग, मधुभार, मधुमालती, मनहरण घनाक्षरी, मनमोहन, मनोरम, मानव, माली, माया, माला, मोहन, मृदुगति, योग, ऋद्धि, रसामृत, रसाल, राजीव, राधिका, रामा, रूपमाला, रोला, लीला, वस्तुवदनक, वाणी, विद्या, विधाता, विरहणी, विशेषिका, विष्णुपद, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शास्त्र, शिव, शुभगति, शोभन, शुद्धगा, शंकर, सरस, सार, सारस, सिद्धि, सिंहिका, सुखदा, सुगति, सुजान, सुमित्र, संपदा, हरि, हरिगीतिका, हेमंत, हंसगति, हंसी)
Sanjiv verma 'Salil'
salil.sanjiv@gmail.com
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