मंगलवार, 5 मई 2009

शब्द सलिला: हज़ार, लाख, करोड़ -अजित वडनेरकर

भारतीय उपमहाद्वीप में हज़ार, लाख, करोड़ शब्दों का आम इस्तेमाल होता है। पाकिस्तान में भी और बांग्लादेश में भी।


हिन्दी-उर्दू के करोड़ शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के कोटि crore से हुई है। जबकि लाख की व्युत्पत्ति लक्ष से और फ़ारसी का हज़ार शब्द आ रहा है इंड़ो-ईरानी परिवार के हस्र से।


संस्कृत का कोटि शब्द कुट् धातु से बना है। धातुएं अक्सर विभिन्नार्थक होती हैं। कुट् का एक अर्थ होता है वक्र या टेढ़ा। दिलचस्प बात यह है यही वक्रता या टेढ़ापन ही उच्च, सर्वोच्च, निम्नता या पतन का कारण भी है। पृथ्वी की सतह पर आई वक्रता ने ही पहाड़ों के उच्च शिखरों को जन्म दिया इसीलिए इससे बना कोट शब्द पहाड़ या किले के अर्थ में प्रचलित है। किसी टहनी को जब मोड़ा जाता है तो अपने आप उसके घुमाव वाले स्थान पर उभार आना शुरु हो जाता है। इस कोण में तीक्ष्णता, पैनापन और उच्चता समाहित रहती है। इसी धातु से बने कोटि शब्द में यह भाव और स्पष्ट है। कोटि यानी उच्चता, चरम सीमा। धनुष को मुड़े हुए हिस्से को भी कोटि ही कहा जाता है। कोटि में उच्चतम बिन्दु, परम और पराकाष्ठा का भाव है। इसी रूप में एक करोड़ को भी सामान्य तौर पर संख्यावाची प्रयोग में पराकाष्ठा कहा जा सकता है।


कोटि का दूसरा अर्थ होता है कोण या भुजा। एक अन्य अर्थ है वर्ग, श्रेणी जिसे उच्च कोटि, निम्नकोटि में समझा जा सकता है। यह कोटि ही कोण है। उच्च कोण निम्न कोण।
करोड़ शब्द का इस्तेमाल अब ठाठ से अंग्रेजी में भी होता है। भारत में पुत्र के सौभाग्य की कामना से पुराने ज़माने में करोड़ीमल जैसा नाम भी रखा जाता रहा है। बेचारा करोड़ीमल देहात में नासमझी के कारण रोड़मल और बाद में रोड़ा, रोडे या रोड्या बनकर रह गया।
एक सहस्र के लिए हज़ार hazar शब्द उर्दू-फारसी का माना जाता है। मज़े की बात यह कि उर्दू ही नही ज्ञानमंडल जैसे प्रतिष्ठित हिन्दी के शब्दकोश में भी यह इन्हीं भाषाओं के नाम पर दर्ज है। हजार इंडो-ईरानी भाषा परिवार का शब्द है। इसका संस्कृत रूप हस्र है। अवेस्ता में भी इसका यही रूप है जिसने फारसी के हज़र/हज़ार का रूप लिया और लौट कर फिर हिन्दी में आ गया। सहस्र यानी स+हस्र में हज़ार का ही भाव है। हस्र बना है हस् धातु से। करोड़ के कुट् की तरह से इसमें भी चमक का भाव है। हास्य, हंसी जैसे शब्द इसी धातु से जन्मे हैं। हँसी से चेहरे पर चमक आती है क्योंकि यह प्रसन्नता का प्रतीक है। प्रसन्नता, खुशहाली, आनंद ये चमकीले तत्व हैं। धन से हमारी आवश्यकताएं पूरी होती हैं। आवश्यकताएं अनंत हैं तो भी इनकी आंशिक पूर्णता, आंशिक संतोष तो देती ही है। सो एक सहस्र की राशि में धन से मिले अल्प संतोष की एक हजार चमक छुपी हैं। अपने प्रसिद्ध उपन्यास अनामदास का पोथा में हजारी प्रसाद द्विवेदी अपने नाम की व्याख्या करते हुए लिखते हैं कि हज़ार वस्तुतः सहस्त्र में विद्यमान हस्र का ही फ़ारसी उच्चारण है....यूं शक्ति का एक रूप भी हजारी है।
सहज शब्द ह (हठयोग) और ज (जययोग) का गुणपरक समन्वित रूप है और हजारी क्रियापरक समन्वय है। “ हजमाराति या देवी महामायास्वरूपिणी, सा हजारीति सम्प्रोक्ता राधेति त्रिपुरेति वा ” सामान्य बोलचाल में हज़ार शब्द में कई, अनेक का भाव भी शामिल हो गया। जैसे बागवानी का एक उपकरण हजारा hazara कहलाता है जिसके चौड़े मुंह पर बहुत सारे छिद्र होते हैं जिससे पौधों पर पानी का छिड़काव किया जाता है। यही हजारा हिन्दी में रसोई का झारा बन जाता है जिससे बूंदी उतारी जाती है। शिवालिक और पीरपंजाल पर्वतीय क्षेत्र की एक जनजाति का नाम भी हजारा है। यह क्षेत्र अब पाकिस्तान में आता है। एक प्रसिद्ध फूल का नाम भी हजारी है। इसे गेंदा भी कहा जाता है। इसमें बेशुमार पंखुड़ियां होती हैं जिसकी वजह से इसे यह नाम मिला। हजारीलाल और हजारासिंह जैसे नाम इसी मूल से निकले हैं।
हिन्दी में एक और संख्यावाची शब्द का इस्तेमाल खूब होता है वह है लाख। यह बना है संस्कृत के लक्षम् से बना है। इसमें सौ हज़ार की संख्या का भाव है। लक्षम् बना है लक्ष् धातु से जिसमें देखना, परखना जैसे अर्थ हैं। इस लक्ष् में आंख की मूल धातु अक्ष् ही समायी हुई है। इसमें चिह्नित करना, प्रकट करना, दिखाना लक्षित करना जैसे भाव भी निहित हैं। बाद में इसमें विचार करना, मंतव्य रखना, निर्धारित करना जैसे भाव भी जुड़ते चले गए। टारगेट के लिए भी लक्ष्य शब्द बना जो एक चिह्न ही होता है। धन की देवी लक्ष्मी का नाम भी इसी धातु से उपजा है जिसमें समृद्धि का भाव है।


किन्हीं संकेतों, चिह्नों के लिए लक्षण शब्द का प्रयोग भी होता है। लक्षण में पहचान के संकेतों का भाव ही है चाहे स्वभावगत हों या भौतिक। मालवी राजस्थानी में इससे लक्खण (बुन्देली में लच्छन- सलिल) जैसा देशज शब्द भी बनता है। देखने के अर्थ में भी लख शब्द का प्रयोग होता है। लखपति शब्द से यूं तो अभिप्राय होता है बहुत धनवान, समृद्ध व्यक्ति। मगर इसका भावार्थ है भगवान विष्णु जो लक्ष्मीपति हैं। स्पष्ट है कि लखपति lakhpati में प्रभु विष्णु जैसी दयालुता, तेज और पौरुष का भाव समाहित है पर आज के लखपति-करोड़पति सिर्फ धनपति हैं। इन्हें किस कोटि में आप रखना चाहते हैं?


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रविवार, 3 मई 2009

शब्द सलिला: बाल, / कंघा - अजित वडनेरकर

शब्द सलिला:
इस धारावाहिक स्तम्भ में श्री अजित वडनेरकर हमारा परिचय शब्दों के उद्भव तथा विकास की यात्रा से करा रहे हैं। भाषा सतत परिवर्तनशील होती है। शब्दों की अनेक सलिलायें मिलकर भषा-सागर को समृद्ध करती हैं। पाठक शब्दों की इस यात्रा से मन-रंजन के साथ ज्ञान-वर्धन भी कर सकेंगे। - सं।
बा ल संवारने का काम भी रोजमर्रा में उतना ही ज़रूरी है जितना सुबह उठकर नित्यकर्म निपटाना। बाल संवारने की क्रिया कंघे द्वारा सम्पन्न होती है। यूं इसके लिए बाल बाहना शब्द भी है जिसे उत्तर भारत में बाल भाना भी कहा जाता है पर यह मुख सुख के लिए होता है। असल शब्द है बाल बाहना जो बना है संस्कृत के वहनम् या वहनीयं से जिसमें ले जाने, सहारा देने, खोलने, सुलझाने से है।
बाल जब नहीं सुलझते हैं तब उन्हें कम करवाना पड़ता है। यूं उलझन जब हद से ज्याद बढ़ जाती है तो बाल नोचे भी जाते हैं, इस तरह गुस्से और खीझ का मुजाहिरा करने का रिवाज़ है। बाल संवारने में लोग काफी वक्त खर्च करते हैं मगर मूलतः बाल बाहने में यानी संवारने में बालों के उलझेपन को दूर करने का ही भाव है।
बालों का गुण ही होता है उलझना, गुत्थम-गुत्था होना। बाल अगर संवारे न जाएं तो वे जटा बन जाते हैं। जिनके सिर पर बड़ी बड़ी जटाएं होती हैं उन्हें इसीलिए जटिल कहा जाता है। बाद में कठिन, दुष्कर के अर्थ में जटिल शब्द चल पड़ा क्योंकि जटाओं को सुलझाना आसान काम नहीं होता। मूलतः जटिल का अर्थ होता है जटावत या जटायुक्त। सो बाल बाहने में उलझे हुए, बिखरे हुए बालों को सुलझा कर तरतीब देने का ही भाव है।
बालों की व्यवस्था से ही किसी के भी व्यक्तित्व के बारे में अनुमान लगाया जा सकता है। बिखरे बाल अस्तव्यस्तता की सूचना देते हैं। मनुष्य दिन में दस बार अपना चेहरा आईने में देखता है और हर बार दर्शनीय नजर आने के लिए सामान्यतौर पर बाल संवार लेता है। जाहिर है कि क्रियाशील रहते हुए अक्सर बाल ही बिगड़ते हैं, जो व्यक्तित्व के बारे में चुगली करते हैं। बाल संवारने के लिए दुनियाभर में दांतेदार उपकरण इस्तेमाल किया जाता है जिसे कंघा कहते हैं। कंघा बना है संस्कृत के कङ्कतः या कङ्कतिका से जिसका अपभ्रंश हुआ कंघा या कंघी। महाभारत के नायकों में एक युधिष्ठिर ने अज्ञातवास के दौरान राजा विराट के यहां निवास करते हुए अपना नाम कङ्क (कंक) ही रखा था।
कंघे की दांतों जैसी संरचना की वजह से ही उसे कङ्क नाम मिला। कोंकणी में कंघे को दान्तोणी ही कहते हैं जबकि मराठी में उसे कंगवा कहा जाता है। अंग्रेजी का कॉम्ब शब्द भी भारोपीय भाषा परिवार से ही जन्मा है और उसके मूल में प्राचीन भारोपीय भाषा परिवार का गोम्भोस gombhos शब्द है।
बाल शब्द यूं तो संस्कृत में भी है मगर भाषा विज्ञानी इसे सुमेरी सभ्यता का शब्द मानते हैं। सुमेरी मूल से निकल कर बाल baal शब्द हिब्रू भाषा में समा गया जहां इसमें निहित सर्वोच्च जैसे भाव का अर्थविस्तार ग़ज़ब का रहा। इन्हीं अर्थों में एक अर्थ शीर्ष अर्थात सिर पर होने का भी रहा जिसकी वजह से इसे भी बाल नाम मिला। पौधे का सर्वोच्च सिरा बाली होती है, इसीलिए उसे यह नाम मिला। गौरतलब है हिब्रू में बाल का अर्थ है स्वामी, परमशक्तिवान, सर्वोच्च।
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शुक्रवार, 1 मई 2009

शब्द-यात्रा: मुर्गा -अजित वडनेरकर

अक्षर से शब्द, शब्द से भाषा, भाषा से भाव तथा भाव की अभिव्यक्ति...सबके हित की कामना से करना ही साहित्य-सृजन का हेतु है। कोई शब्द अचानक अस्तित्व में नहीं आता, उसके जन्म और प्रचलन के पूर्व की दीर्घ यात्रा का अन्वेषण कर श्री अजित वडनेरकर प्रस्तुत कर रहे हैं दिव्य नर्मदा के पाठकों के लिए। आज जानिए 'मुर्गा' की कथा।

अ दना और निरीह सा जीव मुर्गा इनसान के लिए बेहद खास है। मांसाहारी भोजन के शौकीन लोगों की थाली को तो इसने समृद्ध किया ही है, भाषा को भी इसने मालामाल किया है। हिन्दी उर्दू में इसे लेकर कई कहावतें-मुहावरे प्रचलित है जैसे घर की मुर्गी दाल बराबर यानी उपलब्ध पदार्थ या व्यक्ति को महत्व न दिया जाना। मुर्गे की बांग मुहावरा भी इसका महत्व बताता है। यह पक्षी भोर से पहले ही जाग जाता है और शोर मचाता है जिसे बांग देना कहा जाता है। इसे सुनकर ही पुराने ज़माने में लोगों की नींद खुलती थी। मुर्गे पर इसी निर्भरता ने एक अन्य कहावत को जन्म दिया-मुर्गा बांग न देगा तो क्या सुबह न होगी? इसके मूल में किसी कार्य विशेष के लिए परनिर्भरता को लेकर उलाहना छुपा है। …कश्मीर वादी के गुलमर्ग,सोनमर्ग जैसे स्थान अपने नर्म घास के मैदानों के लिए जान जाते हैं… मुर्गा या मुर्गी शब्द हिन्दी, उर्दू फारसी में प्रचलित हैं। अरबी में भी इसका प्रयोग होता है मगर मुर्ग के रूप में। मूलतः यह शब्द फारसी का है जिसका सही रूप भी मुर्ग ही है। इंडों-ईरानी भाषा परिवार के इस शब्द का संस्कृत रूप है मृगः जो बना है मृग् धातु से जिसमें खोजना, ढूंढना, तलाशना जैसे भाव निहित हैं। आमतौर पर हिन्दी में मृग से तात्पर्य हिरण प्रजाति के पशुओं जैसे सांभर, चीतल से है मगर इस शब्द की अर्थवत्ता बहुत व्यापक है। इसके कई अर्थ हैं जो विभिन्न भावार्थों के साथ इस शब्द के सामूहिक इतिहास का संकेत देते हैं। इसमें न सिर्फ चौपाए बल्कि पक्षी भी शामिल हैं। वैदिक काल में संस्कृत में मृग का अर्थ हिरण तक सीमित न होकर किसी भी पशु के लिए था। मनुष्येतर सामान्य सभी प्राणी इसके अंतर्गत आ जाते थे। इस तरह शाकाहारी से लेकर मांसाहारी तक सभी थल चर पशुओं का इसमें समावेश था। शिकार के लिए संस्कृत में मृगया शब्द है जो इस बात को स्पष्ट करता है कि मृग की अर्थवत्ता में हर तरह के पशु शामिल थे। जाहिर सी बात है कि शिकार या आखेट के दायरे में सिर्फ हिरण ही नहीं थे। प्राचीनकाल से ही शेर चीतों के आखेट में मनुष्य की सहज रुचि रही है। शिकार शब्द में खोज का भाव ही निहित है। चिरंतन प्यास के लिए मृगतृष्णा और दृष्यभ्रम के लिए मृगमरीचिका शब्द इसी सिलसिले की कड़ी हैं जिनमें तलाश, खोज स्पष्ट है। मृग शब्द का अर्थ हरी घास भी है। पूर्ववैदिककाल में इस शब्द में ऐसे स्थान या घाटी का भाव था जो हरी भरी हो। पहाड़ों पर आमतौर पर हरियाली जहां होती है उसे ही वादी की संज्ञा दी जाती है, शेष ऊंचाइयां उजाड़ और अनुर्वर होती हैं। लगता है प्राचीनकाल में मृग शब्द में चरागाह या चरने का भाव प्रमुख था। संस्कृत शब्द मृगणा का अर्थ होता है अनुसंधान, शोध, तलाश। जिस तरह से चर् धातु में चलने, गति करने का भाव प्रमुख है उसी के चलते इससे चारा (जिसका भक्षण किया जाए), चरना (चलते चलते खाने की क्रिया), चरागाह (जहां चारा हो) जैसे विभिन्न शब्द बने है। कुछ यही प्रक्रिया मृग के साथ भी रही। पथ, राह, रास्ता के अर्थ में संस्कृत का मार्ग शब्द है जो इसका ही रूपांतर है। मार्ग में भी खोज और अनुसंधान का भाव स्पष्ट है। कभी जिस राह पर चल कर मृगणा अर्थात अनुसंधान या तलाश की जाती थी, उसे ही मार्ग कहा गया। चर् के उदाहरण से स्पष्ट है कि मृग नामक घास के विशाल चारागाहों में पशुओं द्वारा इसके भक्षण करते चलने से यह शब्द बना जो बाद में व्यापक तौर पर मार्ग यानी रास्ता के अर्थ में प्रचलित हुआ। कश्मीर घाटी में कई बस्तियां हैं जिनके नाम के साथ मर्ग शब्द जुड़ता है जो इसी श्रंखला का हिस्सा है जिसका मतलब होता है हरी भरी वादी मसलन सोनमर्ग, गुलमर्ग, तंगमर्ग आदि। वादी के ये तमाम स्थान अपने नर्म घास के मैदानों के लिए ही जाने जाते हैं। इसी श्रंखला में पक्षी को भी फारसी में मुर्ग़ का नाम मिला जिसका मतलब हुआ चुगने वाला जीव। थलचर पक्षियों में मुर्ग़ सर्वाधिक लोकप्रिय आहार है। अरबी में इससे एक सामिष पकवान बनता है जिसे मुर्ग़मुसल्लम कहते हैं यानी साबुत भुना हुआ मुर्गा। इसी तरह एक और पक्षी होता है जिसे मुर्गाबी कहा जाता है। मुर्गाबी बतख की प्रजाति की जीव है और जल-थल दोनो जगहों पर रहती है। यह बना है मुर्गआब यानी पानी में रहनेवाला मुर्ग जिसका देशी रूप हुआ मुर्गाबी। उर्दू-फारसी में पानी को आब कहते हैं। यूं आब शब्द भी संस्कृत मूल का है और अप् धातु से बना है जिसका अर्थ पानी होता है। फारसी में मुर्ग़ से बने कई शब्द युग्म है जिनमें मुर्ग शब्द का अभिप्राय चिडिया या परिंदे के तौर पर ही उभरता है जैसे मुर्गबाग़ यानी पक्षी विहार या मुर्गीखाना यानी पंछीघर, मुर्गसुलेमान यानी राजा सॉलोमन की चिडिया आदि। प्रचलित अर्थ में जो मुर्गी है उसके लिए मुर्ग-सुब्हख्वान यानी सुबह का पंछी जैसा आलीशान शब्द है।

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